औद्योगिक क्षेत्रों के आस-पास रहना है खतरनाक, यहाँ रहने वालों का जीवन है खतरे में
जब हम विकास और औद्योगिकीकरण की बात करते हैं, तो अक्सर फैक्ट्रियों, बिजलीघरों और खदानों की बढ़ती संख्या को प्रगति का प्रतीक मानते हैं। लेकिन यह प्रगति कई बार आम लोगों के जीवन के लिए जानलेवा साबित हो रही है। देश के कई औद्योगिक क्षेत्र, जैसे कि सोनभद्र (उत्तर प्रदेश), सिंगरौली (मध्यप्रदेश), कोरबा (छत्तीसगढ़) और चंद्रपुर (महाराष्ट्र), ऐसे उदाहरण बन चुके हैं जहां विकास की आंधी में जनजीवन संकट में पड़ गया है।
यह खबर उसी हकीकत को उजागर करती है जो इन इलाकों में रहने वाले लोगों को प्रदूषित हवा, दूषित जल, अस्थमा, कैंसर और अन्य गंभीर बीमारियों के साथ झेलनी पड़ती है।
औद्योगिकीकरण और जीवन के बीच टकराव
औद्योगिक क्षेत्रों के आस-पास रहने वाले लाखों लोगों को शायद ही कभी विकल्प मिलता है कि वे कहीं और जाकर बसें। यह उनके लिए घर भी है और खतरा भी। सुबह आंख खुलते ही जब कोई व्यक्ति प्रदूषित हवा में सांस लेता है, और रात में खांसी और सीने की जकड़न से सो नहीं पाता तो यह समझा जा सकता है कि उस जीवन की गुणवत्ता कितनी कम हो गई है।
हवा में ज़हर घुला है
औद्योगिक इलाकों में सबसे बड़ी चिंता की बात वायु प्रदूषण है। थर्मल पावर प्लांट, सीमेंट फैक्ट्रियाँ, स्टील इंडस्ट्रीज़ और खदानें हवा में खतरनाक तत्व छोड़ती हैं।
PM2.5 और PM10 कण फेफड़ों में जाकर अस्थमा, ब्रोंकाइटिस जैसी बीमारियाँ पैदा करते हैं। सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) और नाइट्रोजन ऑक्साइड (NOx) सांस की नली में जलन और सूजन पैदा करते हैं। ओजोन (O₃) जो जमीन के स्तर पर बनती है, फेफड़ों की कार्यक्षमता को प्रभावित करती है।
उदाहरण
सोनभद्र (UP) में 2023 में हुए एक सर्वे में पाया गया कि 100 में से 38 लोग किसी न किसी प्रकार के श्वसन रोग से ग्रसित हैं।
सिंगरौली (MP) में बच्चों में अस्थमा और त्वचा रोगों के मामले सामान्य से दोगुने हैं।
पानी भी हो गया है जहरीला
थर्मल प्लांट्स से निकलने वाली राख (Fly Ash), खदानों की खुदाई और औद्योगिक अपशिष्ट सीधे नदी, नाले और भूमिगत जल को प्रभावित कर रहे हैं। पीने का पानी प्रदूषित हो चुका है। कई जगहों पर पारा (Mercury) और आर्सेनिक जैसे धातु तत्व पाए गए हैं जो किडनी और मस्तिष्क पर असर डालते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में त्वचा रोग, कैंसर, और प्रजनन संबंधी समस्याएं बढ़ रही हैं।
बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित
बच्चों का फेफड़ा विकासशील होता है। प्रदूषित हवा में सांस लेने से उनके शरीर पर बुरा असर पड़ता है। WHO की रिपोर्ट कहती है कि औद्योगिक क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों में अस्थमा के मामले 3 गुना अधिक होते हैं। सिंगरौली के एक सरकारी स्कूल के प्रधानाध्यापक बताते हैं कि हमारे यहां हर क्लास में 3-4 बच्चे ऐसे हैं जो इनहेलर के बिना स्कूल नहीं आ सकते। कुछ बच्चों को तो स्कूल आते ही खांसी और दम की समस्या हो जाती है।
बुजुर्ग और महिलाएं भी चपेट में
बुजुर्गों को पहले से फेफड़े, हृदय और शुगर जैसी समस्याएं होती हैं। प्रदूषित वातावरण उनकी सेहत के लिए बेहद घातक है। वहीं महिलाएं, खासकर गर्भवती महिलाएं, प्रदूषण से अधिक प्रभावित होती हैं। समय से पहले प्रसव, कम वजन के बच्चे और नवजात मृत्यु दर में वृद्धि देखी गई है।
सरकारी आंकड़े छिपाते हैं सच्चाई
सरकारी विभाग अक्सर "प्रदूषण नियंत्रण के मानक" पूरे होने का दावा करते हैं। लेकिन ज़मीनी सच्चाई कुछ और ही है। स्थानीय लोगों का कहना है कि हर दिन सुबह राख की परत छतों और कपड़ों पर जम जाती है।सांस लेने में तकलीफ, आंखों में जलन, और लगातार खांसी सामान्य बात हो गई है।
इलाज का साधन नहीं, मजबूरी में जी रहे लोग
औद्योगिक क्षेत्रों में अस्पताल कम हैं। जो हैं भी, उनमें फेफड़ों की विशेष जांच या अस्थमा विशेषज्ञ नहीं हैं। लोगों को अक्सर 100 किलोमीटर दूर के शहरों में इलाज कराने जाना पड़ता है। दवा, यात्रा और छुट्टी—तीनों का खर्च उठाना हर किसी के बस की बात नहीं।
कंपनियों की CSR जिम्मेदारी अधूरी
कंपनियां CSR (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) के नाम पर हर साल करोड़ों रुपये खर्च दिखाती हैं, लेकिन कहीं न जल शुद्धिकरण की व्यवस्था है,न वायु गुणवत्ता मॉनिटरिंग स्टेशनों की पर्याप्त संख्या और न ही मास्क वितरण या अस्थमा से पीड़ित लोगों की पहचान।
ग्रीन बेल्ट सिर्फ कागज़ों पर
सरकार और कंपनियां अक्सर दावा करती हैं कि फैक्ट्री के चारों ओर ग्रीन ज़ोन बनाया गया है, लेकिन सच्चाई यह है कि पौधे सूख चुके हैं या लगाए ही नहीं गए। कहीं-कहीं थोड़े बहुत पौधे सिर्फ विज़िट के समय लगाए जाते हैं।
कानूनी कदम और जनता की आवाज़
कई जगहों पर एनजीओ और नागरिकों ने NGT (National Green Tribunal) में केस दायर किए हैं। कुछ जगहों पर जुर्माना भी लगाया गया है, लेकिन यह एक सतत संघर्ष है।कोरबा की एक पर्यावरण कार्यकर्ता कहती हैं “हम न शुद्ध हवा में सांस ले सकते हैं, न साफ पानी पी सकते हैं। यह मानवाधिकारों का हनन है।”
समाधान क्या हो सकते हैं?
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थर्मल पावर प्लांट्स में आधुनिक प्रदूषण नियंत्रण उपकरण (ESP, FGD) अनिवार्य हों
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प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों की नियमित ऑडिट हो
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स्थानीय अस्पतालों में अस्थमा व फेफड़ों के रोगों की विशेष सुविधा
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जनता को मास्क, इनहेलर, एयर प्यूरीफायर और स्वास्थ्य जांच की सुविधा
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प्रदूषण के आंकड़े सार्वजनिक रूप से ऑनलाइन उपलब्ध हों
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विकासशील ऊर्जा स्रोतों (जैसे सौर, पवन) को बढ़ावा दिया जाए
खैर विकास जरूरी है, लेकिन स्वस्थ जीवन उससे भी जरूरी है। औद्योगिक क्षेत्रों के आस-पास रह रहे लोग असली कीमत चुका रहे हैं उस "विकास" की, जिसका लाभ कुछ गिने-चुने समूहों को ही मिल रहा है। अब समय आ गया है कि सरकार, उद्योग और समाज मिलकर ऐसे लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए ठोस कदम उठाएं। क्योंकि यदि हम उन्हें जीने के लिए सांस नहीं दे सकते, तो यह कैसी तरक्की है?
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