हिमनदी की स्थलाकृति और आकृति विज्ञान ग्लेसियर्स के पीछे हटने को कर रहे नियंत्रित

हिमनदी की स्थलाकृति और आकृति विज्ञान ग्लेसियर्स के पीछे हटने को कर रहे नियंत्रित

आकृति : 2015 और 2019 में ग्लेशियर के मुखाग्र (स्नाउट) को प्रदर्शित करने वाले क्षेत्रीय चित्र क्रमशः पीजी (ए और बी) और डीडीजी (ई और एफ) चित्रों पर लगाए गए पर लाल घेरे (बी और ई) ग्लेशियरों द्वारा खाली किए गए क्षेत्र को इंगित कर रहे हैं वहीं लाल तीर ( चित्रों - (ए, बी) और (ई, एफ) में) संदर्भ बिंदु दिखा रहे हैं। (सी, डी, जी, एच) चेन टेप सर्वेक्षण की मदद से मुखाग्र वापसी (स्नाउट रिट्रीट) को मापने के लिए उपयोग किए जाने वाले संदर्भ बिंदुओं का निकटवर्ती (क्लोज-अप) दृश्य ।

 

नई दिल्ली,8 मार्च 2023-हाल के एक अध्ययन के अनुसार, मलबे के आवरण में परिवर्तन होना किसी ग्लेशियर की सतह में कमी आने, उसके संकुचित होने, पीछे हटने और उसके द्रव्यमान संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसलिए, भविष्य के अध्ययनों में अब तक देखे गए ग्लेशियर परिवर्तनों और प्रतिक्रियाओं की पूरी समझ के लिए इन कारकों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है।

हिमालय क्षेत्र में हिमनद निर्माण (ग्लेशिएशन) के महत्व के बावजूद ऐसे हिमनदों की गतिकी (डायनामिक्स) और ऐसी गतिकी को प्रभावित करने वाले कारकों के बारे में बहुत ही कम  जानकारी है। हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियरों के हाल के अध्ययनों से इस पर्वत श्रृंखला के विभिन्न क्षेत्रों में उनके पीछे हटने की दर और द्रव्यमान संतुलन में व्यापक परिवर्तनशीलता का संकेत मिलता है, जो मुख्य रूप से उस क्षेत्र की स्थलाकृति (टोपोग्राफी) और जलवायु से जुड़ा हुआ है। हालांकि, हिमालयी ग्लेशियरों के ग्लेशियरों की परिवर्तनीय वापसी दर और उस क्षेत्र के अपर्याप्त सहायक डेटा (जैसे, द्रव्यमान संतुलन, बर्फ की मोटाई और, वेग इत्यादि) ने जलवायु परिवर्तन प्रभाव के एक सुसंगत चित्रण को विकसित करना चुनौतीपूर्ण बना दिया है।

हिमालय के ग्लेशियरों की महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक यह है कि ये हिमनद (ग्लेशियर) मुख्य रूप से मलबे से ढके हुए हैं और पिछले लघु हिमयुग (लिटिल आइस एज) की समाप्ति के बाद से ही से घट रहे हैं। हिमनदों की सतह पर अधिहिमनदीय (सुप्राग्लेशियल) मलबे का  सामान्यतः सूर्य के प्रकाश, वायु अथवा वर्षा (से पृथक्करण) के कारण बर्फ के द्रव्यमान में आई  कमी की दर पर महत्वपूर्ण नियंत्रण पाया जाता है। यह देखा गया है कि अधिहिमनदीय (सुप्राग्लेशियल) की मोटाई  किसी भी ग्लेशियर की प्रतिक्रिया को जलवायु के प्रति प्रतिक्रिया में महत्वपूर्ण रूप से बदल देती है ।

भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के एक स्वायत्त संस्थान  वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान (वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी – डब्ल्यूआईएचजी), देहरादून, उत्तराखंड के वैज्ञानिकों की एक टीम ने मात्रात्मक रूप से ग्रीष्म ऋतु में हिम (बर्फ)  द्रव्यमान में कमी (ग्रीष्मकालीन पृथक्करण) पर मलबे के आवरण के प्रभाव और ग्लेशियरों के टर्मिनस रिसेसन का मूल्यांकन किया ।

डॉ. मनीष मेहता और उनकी टीम ने अलग-अलग विशेषताओं वाले दो हिमनदों (ग्लेशियरों) - लद्दाख के लेह जिले में सुरु नदी में पेनसिलुंगपा ग्लेशियर (पीजी) और जांस्कर पर्वत श्रृंखला की डोडा नदी घाटियों में डुरुंग-द्रुंग ग्लेशियर (डीडीजी) का 1971 से 2019 के बीच की अवधि में ग्लेशियर के उतार-चढ़ाव का तुलनात्मक अध्ययन किया। जहां एक ओर एक मोटा मलबा आवरण पीजी की विशेषता है, वहीं डीडीजी के पास एकत्र मलबे पर एक पतला आवरण है। साथ ही उनके तुलनात्मक विश्लेषण ने उन्हें बड़े पैमाने पर संतुलन प्रक्रिया पर विभिन्न कारकों के प्रभाव का पता लगाने में मदद की है।

उन्होंने पाया कि हिमनद (ग्लेशियर) के पीछे हटने की दर जलवायु परिवर्तन और ग्लेशियर की स्थलाकृतिक सेटिंग और आकारिकी द्वारा नियंत्रित होती है। शोध पत्रिका (जर्नल) सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित उनका तुलनात्मक अध्ययन मुखाग्र ज्यामिति (स्नाउट ज्योमेट्री), ग्लेशियर के आकार, ऊंचाई की सीमा, ढलान, पक्ष एवं  मलबे के आवरण के साथ-साथ विषम जलवायु में जलवायु के अलावा हिमनदों की गतिकी और हिमनदों के अध्ययन में इन्हें शामिल करने की आवश्यकता को रेखांकित करने के साथ ही सुप्रा और प्रोग्लेशियल झीलों की उपस्थिति जैसे कारकों के संभावित प्रभाव की भी पुष्टि करता है ।

प्रकाशन लिंक: https://www.mdpi.com/2071-1050/15/5/4267/pdf

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