राख के भंडार के कारण नई इकाइयों की स्थापना में फंस सकता है पेंच
ऐश डैम के लिए स्थान खोजना बनी समस्या
फोटो-रेणुका नदी से निकाली जाती राख
सोनभद्र- कोयला आधारित बिजली पर देश की निर्भरता के कारण बढ़ते प्रदूषण के साथ राख के बढ़ते ढेर ने बड़ी समस्या पैदा कर दी है। राख भंडारण के लिए जगह की कमी के साथ इसके गलत प्रभाव ने प्रदूषण के मानकों को काफी बढ़ाया है। जिसके कारण भविष्य की योजनाओं में भारी बाधा उत्पन्न हो गयी है। प्रदूषण को लेकर पहले से ही कुख्यात रहे सोनभद्र-सिंगरौली क्षेत्र में राख के बढ़ते भण्डार ने तमाम परियोजनाओं के विस्तारीकरण ओर नई इकाइयों की स्थापना में पेंच फंसा दिया है। तापीय परियोजनाओं से निकल रही फ्लाई ऐश जनपद के लिए बड़ी समस्या बन गयी है।केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय व नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की सख्ती को देखते हुए भविष्य की योजनाओं पर असर पड़ सकता है।
ओबरा अ तापघर में नई इकाइयों की स्थापना होगी प्रभावित
जनपद में राख के भड़ते भण्डार के कारण ओबरा तापीय परियोजना के अ ताप घर में पुरानी इकाइयों की जगह नई इकाइयों की स्थापना प्रभावित हो सकती है।राख भंडारण के लिए उपयुक्त स्थान नही होने के कारण इन इकाइयों को लगाने की अनुमति मिलना संभव नही होगा।फिलहाल उत्पादन निगम नई इकाइयों की स्थापना के लिए प्रारंभिक प्रक्रिया पर काम कर रहा है,लेकिन राख भण्डारण के लिए तय स्थान का कोई अता पता नही होने के कारण बहुत कम संभावना है कि केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय नई इकाइयों की अनुमति देगा।वर्तमान में सोनभद्र-सिंगरौली क्षेत्र में 20 हजार मेगावाट से ज्यादा बिजली पैदा करने के लिए प्रतिदिन 270000 टन से ज्यादा कोयला जलाया जा रहा है।जिसके वजह से पहले से यह क्षेत्र राख के भण्डार पर बैठा नजर आ रहा है।ऐसे में कई परियोजनाओं में प्रस्तावित विस्तारीकरण प्रभावित हो सकता है।वर्तमान में निर्माणाधीन ओबरा सी परियोजना के ऐश डैम के लिए भूमि अधिग्रहण में समस्या आ रही है।ओबरा अ तापघर की जगह पर प्रस्तावित 800 मेगावाट की ओबरा डी के लिए भी ऐश डैम समस्या बन सकती है।
प्रदूषण ने बढ़ाई चिंता
कोयला आधारित बिजली के मुख्य केंद्र वाले सोनभद्र-सिंगरौली क्षेत्र में कोयले का हानिकारक असर बढ़ते जा रहा है।कोयले में फ्लोराइड जैसे भारी तत्व नाइट्रेट व सल्फेट्स जैसी गैसीय तत्व काफी मात्रा में पाये जाते है जो कोयला जलाने के साथ लगातार हवा में मिल रहे हैं।कोयला जलने के बाद 28 से 40 फीसदी फ्लाई ऐश निकलती है जिसमें काफी हिस्सा ऐश डैम या अन्य जलस्रोतों में जाता है। फ्लाई एश के प्रभाव में जहां भारी आबादी के स्वास्थ्य पर खतरा मंडरा रहा है वही पर्यावरण को होने वाले नुकसान की सीमा भी चरम पर पहुंच चुकी है।देश में अभी फ्लाई ऐश को कूड़ा ही समझा जाता है। ताप बिजली घरों के इर्द-गिर्द इनके जमा होते टीलो और पोखरों की समस्या से निपटने के लिए पर्यावरण मंत्रालय विज्ञान एवं प्रभाव प्रौद्योगिकी विभाग एवं बिजली मंत्रालय मिलकर 1994 से ही लगे हुए हैं इसके बावजूद इस्तेमाल का प्रतिशत लगभग 10% भी नहीं पहुंचा है।विकसित देशों में इसे दुर्लभ दौलत माना जाता है और 50% से ज्यादा हिस्से का उपयोग हो जाता है।