राष्ट्रीय संसाधनों पर कारपोरेट कब्जे की साजिश है बिजली विभाग का निजीकरण-दिनकर
बिजली निजीकरण को राजनीतिक बहस का हिस्सा बनाया जाए
ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट, उत्तर प्रदेश के प्रदेश महासचिव दिनकर कपूर ने कहा कि देश के प्राकृतिक संसाधनों, सार्वजनिक संपत्तियों, आर्थिक स्रोतों और श्रमशक्ति को चंद पूंजीपतियों को सौंपने की जो प्रक्रिया मौजूदा सरकार ने शुरू की है, वह न केवल लोकतंत्र के लिए खतरा है बल्कि आम नागरिकों के जीवन, अधिकार और भविष्य को भी दांव पर लगा रही है। उत्तर प्रदेश में बिजली विभाग का निजीकरण उसी खतरनाक दिशा में एक और कदम है। केंद्र की भाजपा सरकार और उत्तर प्रदेश की योगी सरकार, दोनों मिलकर इस निजीकरण अभियान को अंजाम दे रही हैं।
जारी विज्ञप्ति में कहा कि वर्तमान में जो सूचनाएं सामने आ रही हैं, उनके अनुसार पूर्वांचल और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम (डिस्कॉम) को टाटा, अडानी और टोरेंट पावर जैसी बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों को सौंपने की तैयारी की जा रही है। यह वही कंपनियां हैं, जिनके साथ भाजपा के शीर्ष नेताओं की नजदीकियां लंबे समय से चर्चा का विषय रही हैं।
इतिहास भी इस बात का गवाह है कि जब-जब देश में भाजपा की सरकार रही है, तब-तब बिजली क्षेत्र का निजीकरण तेज़ हुआ है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय एनरॉन जैसे विदेशी कारपोरेशन के साथ समझौते किए गए थे, जिन्होंने न केवल बिजली की कीमतों को बढ़ाया बल्कि राष्ट्रीय हितों को भी चोट पहुंचाई। भाजपा सरकार के ही दौर में 2003 का विद्युत कानून लाया गया, जिसने पूरे देश में निजीकरण का दरवाज़ा खोला।
अब वर्तमान मोदी सरकार "विद्युत संशोधन विधेयक" लेकर आई है, जिसमें सब्सिडी और क्रॉस सब्सिडी को खत्म करने की बात कही गई है। इसका सीधा असर गरीबों और किसानों पर पड़ेगा। अनुमान है कि यदि यह विधेयक लागू होता है, तो 7.5 हॉर्सपावर के सिंचाई कनेक्शन पर किसानों को हर महीने ₹10,000 तक का बिल चुकाना पड़ेगा। यह न केवल कृषि उत्पादकता को प्रभावित करेगा, बल्कि किसानों की आत्मनिर्भरता और जीवनयापन भी खतरे में डाल देगा।
उत्तर प्रदेश में जिन डिस्कॉम का निजीकरण प्रस्तावित है, उनमें हाल ही में 42968 करोड़ रुपये की लागत से पुनर्विकसित वितरण क्षेत्र सुधार योजना के तहत काम चल रहा है। इसके अलावा विभिन्न योजनाओं और बिजनेस प्लान के तहत भी हजारों करोड़ की सरकारी पूंजी और टैक्सपेयर के पैसे खर्च हुए हैं। अब इन पूरी संरचनाओं को मुफ्त में या बेहद कम कीमत पर कारपोरेट घरानों को सौंपने की तैयारी हो रही है।
इस प्रक्रिया की पारदर्शिता पर भी गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं। ई-टेंडर प्रक्रिया को पूरी तरह गोपनीय रखा गया है। सरकार ने यह शर्त रख दी है कि टेंडर की जानकारी उन्हीं को मिलेगी जो टेंडर प्रक्रिया में भाग ले रहे होंगे। इससे यह स्पष्ट है कि आम जनता, मीडिया और अन्य हितधारकों को जानबूझकर इससे दूर रखा जा रहा है।
अधिक चिंता की बात यह है कि ट्रांजैक्शन कंसल्टेंट के रूप में ग्रांट थॉर्नटन जैसी कंपनी को नियुक्त किया गया है, जो अमेरिका में झूठे शपथ पत्र देने के मामले में दंडित हो चुकी है। यह नियुक्ति नियमों के खिलाफ है, जिसे विद्युत नियामक आयोग ने भी आपत्तियों के साथ वापस लौटाया था।
यह पूरी प्रक्रिया साबित करती है कि बिजली विभाग का निजीकरण केवल सेवा सुधार का नहीं बल्कि सरकारी संपत्तियों की लूट का माध्यम बन गया है। मौजूदा सरकार पूंजीपतियों की एजेंट की तरह काम कर रही है और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को दरकिनार करके जनविरोधी नीतियों को लागू कर रही है।
अब सवाल यह उठता है कि इस निजीकरण के खिलाफ क्या रणनीति होनी चाहिए? अभी तक बिजली विभाग के कर्मचारी संगठनों ने विभागीय अधिकारियों और शीर्ष नौकरशाहों के खिलाफ आंदोलन चलाया है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। अब वक्त है कि निजीकरण विरोधी आंदोलन को विस्तृत और बहुस्तरीय बनाया जाए।
इसके लिए जरूरी है कि एक "निजीकरण विरोधी मंच" का गठन किया जाए जिसमें किसान संगठनों, मज़दूर और कर्मचारी यूनियनों, छात्र-युवा संगठनों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं, नागरिक समाज और प्रबुद्ध वर्ग को शामिल किया जाए। यह आंदोलन केवल बिजली कर्मचारियों तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि इसे एक राजनीतिक और सामाजिक अभियान की शक्ल दी जानी चाहिए।
बिजली आज केवल एक सेवा नहीं, बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकार का हिस्सा बन चुकी है। संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार गरिमामय जीवन हर नागरिक का अधिकार है और बिजली उसके लिए अनिवार्य शर्त बन चुकी है। इसलिए बिजली का निजीकरण संवैधानिक मूल्यों और सामाजिक न्याय के खिलाफ है और इस पर न्यायालयों में हस्तक्षेप की भी ज़रूरत है।
आज का दौर वित्तीय पूंजी का है जहां सरकारें पूंजी घरानों की रक्षा में लगी हैं। ट्रेड यूनियन आंदोलन का जन्म भले ही कल्याणकारी राज्य की पृष्ठभूमि में हुआ था, लेकिन आज की परिस्थितियों में केवल हड़ताल या कार्य बहिष्कार जैसे उपाय प्रभावी नहीं रह गए हैं। जरूरत है कि आंदोलन के नए संवैधानिक, लोकतांत्रिक और रचनात्मक तरीकों पर विचार किया जाए।
अनिश्चितकालीन धरना, जन संवाद, सामाजिक उपवास, जन अभियानों के जरिए समर्थन जुटाना, ऐसे तमाम तरीकों को अपनाना होगा जिससे इस जनविरोधी नीति के खिलाफ जनमत खड़ा किया जा सके।
जब तक पूरे प्रदेश की जनता, किसान, कर्मचारी, छात्र और आम नागरिक इस मुद्दे को अपना मुद्दा नहीं बनाएंगे, सरकार अपनी जनविरोधी नीतियों से पीछे नहीं हटेगी। इसलिए आवश्यक है कि बिजली निजीकरण के खिलाफ व्यापक जनसंघर्ष खड़ा किया जाए और इसे राजनीतिक बहस का हिस्सा बनाया जाए।